मंजिल तक पहुंचने की खुशी हर किसी को होती है चाहें वो पढ़लिखकर मुकाम हासिल करने की हो या किसी चीज में महारत हासिल करना हो.

लेकिन वहीं कुछ लोगों की खुशी कुछ लोगों की मंजिल उनका घर होता है जी हां, घर तक पहुंचने की मंजिल उनसे जुड़ी है जो किसी के चंगुल में फंसे होते हैं . तो आइए आपको ऐसी ही हैरान कर देने वाली दास्तां सुनाते है इक पीड़िता की,
45 दिनों की दर्द भरी दास्तान
मानव तस्करों द्वारा दिल्ली में बेचे जाने के बाद खरीदार के चंगुल से किसी तरह खुद को छुड़ाकर भागने के बाद सैंकड़ों किलोमीटर तक डेढ़-दो महीने भूख-प्यास और अन्य मुश्किलों की परवाह किए बगैर पैदल चलकर मध्यप्रदेश सीधी तक पहुंचना जितना संघर्ष भरा है, उतनी ही दारुण दिल्ली में बिताए गए 45 दिनों की दास्तान भी है.
भूखी ही सही मगर मंजिल तक पहुंचने की है खुशी
आपको बता दें कि पुरानी दिल्ली से भाग निकलने में सफल रही युवती साहिबगंज जिले के बरहेट इलाके की है. श्रीरामपुर से सटा उसका इलाका संताल बहुल है. यहां हिंदी समझने और बोलने वालों की तादाद लगभग नगण्य है. सभी लोग आपस में संताली में ही बात करते है. पीड़िता भी संताली में बात करती है. उसके चेहरे पर घर लौटने की खुशी है तो दहशत भरे तीन महीने का खौफ भी.
जिन पर था भरोसा उसी ने दी जिल्लतभरी जिंदगी
बता दें कि, मिशन में प्रति महीने 5000 रुपये की नौकरी दिलाने का ख्वाब दिखाकर गांव के ही दूसरे टोले का सृजन मुर्मू मोटरसाइकिल से उसे और उसकी एक सहेली को बरहड़वा ले गया. वहां से तीनों फरक्का एक्सप्रेस से दिल्ली पहुंच गए. तीनों तीन दिनों तक एक ठिकाने पर रहे। इसके बाद पहले उसकी सहेली को उससे जुदा कर दिया गया, फिर उसे एक ठिकाने पर छोड़कर सृजन चला गया. उसके बाद उसे किसी मकान के तीसरे तल पर ले जाया गया. वहां उससे खूब काम करवाया जाता, तरह-तरह की यातनाएं दी जाती और ढंग से खाना भी नहीं दिया जाता. जानवरों से भी बदतर जिंदगी. ऐसी हालत में वह लगभग डेढ़ महीने रही और एक रात मौका पाकर वहां से भाग गई.
कठिन है डगर, मगर रास्तों का नहीं है पता,
पीड़िता आगे अपनी कठिन डगर और खौफ भरे रास्तों के बारें में बताती है कि जब वह दिल्ली से घर के लिए भागी तो सुनसान रास्ते पर बदहवास भागती रही. कौन सा रास्ता किधर जाता है, पता नहीं था, लेकिन भगवान भरोसे चलती रही. लगभग तीन घंटे चलने के बाद उसने रात एक अर्धनिर्मित भवन में गुजारी. फिर अगले दिन अल सुबह अंजान डगर पर निकल पड़ी. वह संताली बोलती तो कोई समझ नहीं पाता था, हिंदी-अंग्रेजी उसे आती नहीं.

ऐसे में किसी से रास्ते का पता पूछना भी संभव नहीं था. अनजान लोगों को आपबीती बताने से भी डरती थी. सोचती थी कहीं फिर न पकड़ ली जाऊं. उसके पास न पैसे थे न जानकारी न कोई और सहारा. अगर कुछ था तो वह थी हिम्मत, जिसके बूते वह पैदल ही बढ़ती गई. सड़क जिधर जाती, वह उधर ही बढ़ जाती. जहां किसी लाइन होटल पर कोई खाता दिखा, उसके सामने हाथ पसार दिया. किसी ने कुछ दे दिया तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ गई. कई बार होटल वालों ने दो रोटी देने के बदले उससे बर्तन भी मंजवाए.
कई मौके ऐसे भी आए, जब उसे जूठन से ही संतोष करना पड़ा, कई बार दो-दो तीन-तीन दिन तक कुछ नहीं खाया. जब-जितना मिला उसी से संतोष कर आगे बढ़ती रही. मन में यह विश्वास था कि एक दिन अपने घर जरूर पहुंचेगी.
बेटियों के लौटने के इंतजार में बीत जाती है रातें
कुछ न खाने की वजह से पीड़िता के बेहोश होने के बाद होश आने वह बताती है कि पुलिस उसे जहां ले गई, वहां पहले से ही कुछ लड़कियां थीं. बाद में पुलिस उसे साहिबगंज के बरहेट ले आई. आपको बता दें कि यह तो कहानी हर एक गांव की लड़की की है जहां दर्जनों लड़कियां किसी के चंगुल में फंसी हुई है अभी तक उनका कहीं अता-पता नहीं है. जिसके लौटने के इंतजार में माता-पिता की आंखें पथरा गई हैं.